Pasanahchariyam
Added to library: September 2, 2025

Summary
पार्श्वनाथचरित: एक विस्तृत सारांश
परिचय
यह "पार्श्वनाथचरित" (Pasanahacariu) आचार्य पद्मकीर्ति द्वारा प्राकृत भाषा के अपभ्रंश रूप में लिखित एक महाकाव्य है। यह ग्रन्थ, जो २३वें जैन तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के जीवन और उपदेशों पर आधारित है, जैन साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस ग्रन्थका सम्पादन और प्रकाशन प्रो. प्रफुल्ल कुमार मोदी ने प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी द्वारा १९६५ में करवाया था। इस पुस्तकमें प्रस्तावना, मूल पाठ, हिन्दी अनुवाद, शब्दावली, टिप्पणियाँ और अन्य परिशिष्ट शामिल हैं, जो पार्श्वनाथ के जीवन, उनके पूर्व जन्मों, उनके उपदेशों और उस समयकी सामाजिक-धार्मिक स्थितियों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करते हैं।
कवि और रचनाकाल
कवि पद्मकीर्ति, जो एक मुनि भी थे, का उल्लेख ग्रन्थके अन्तमें मिलता है। उनके गुरुओं की परम्परा में चन्द्रसेन, माधवसेन और जिनसेन जैसे आचार्य थे। यह अनुमान है कि वे दक्षिण भारत के थे, क्योंकि उनके काव्यों में कुछ ऐसे रीति-रिवाजों और प्रदेशों का उल्लेख है जो दक्षिण भारतीय संस्कृति से सम्बंधित हैं। प्रशस्ति के अनुसार, ग्रन्थकी रचना विक्रम संवत् १४७३ (ई. स. १४१६) में कार्तिक मास की अमावस्या को पूर्ण हुई थी।
ग्रन्थका विषय और संरचना
पार्श्वनाथचरित अपभ्रंश भाषा में एक लम्बी काव्यात्मक रचना है, जो १८ संधियों (सर्गों) में विभक्त है। प्रत्येक सन्धि अनेक कडवकों (पदों) में बँटी हुई है।
- मुख्य विषय:
- पार्श्वनाथका जीवन: ग्रन्थ का मुख्य विषय २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथका जीवन है, जिसमें उनके जन्म, दीक्षा, तपस्या, उपसर्ग, केवलज्ञानकी प्राप्ति, संघका निर्माण, उपदेश और निर्वाणका वर्णन है।
- पूर्वजन्मोंका वर्णन: पार्श्वनाथके नौ पूर्वजन्मोंकी कथाएँ विशेष रूप से विस्तृत हैं, जिनमें मरुभूति (पार्श्वका पूर्वभव) और कमठ (शत्रु) के जीवोंके जन्मों का क्रमिक वर्णन है। इन कथाओं का उद्गम और विकास, साथ ही अन्य जैन ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
- धार्मिक और दार्शनिक चिंतन: ग्रन्थमें जैनधर्मके मूल सिद्धाँत जैसे सम्यक्त्व, श्रावकधर्म (अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत), मुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त और विश्वके स्वरूपका विवेचन किया गया है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक चित्रण: तत्कालीन समाज, राजाओं, नगरों, युद्धों, प्रकृति वर्णन, स्त्री-पुरुष वर्णन, हास्य, वीर रस आदि काव्य-गुणों का विस्तृत वर्णन भी ग्रन्थमें मिलता है।
ग्रन्थकी विशेषताएँ:
- ऐतिहासिकता: पार्श्वनाथको एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो महावीरसे लगभग २,५०० वर्ष पूर्व हुए थे। बौद्ध और जैन आगमोंसे मिले प्रमाणोंके आधार पर उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध की गई है।
- चार याम धर्म: पार्श्वनाथके उपदेशोंका मूल "चातुर्याम धर्म" था, जिसमें हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रहका त्याग शामिल था। महावीरके पाँच महाव्रतोंका यह पूर्ववर्ती स्वरूप माना जाता है।
- काव्य-गुण: ग्रन्थ अपभ्रंश भाषाकी मिठास, प्रसाद गुण और काव्य-प्रवाहसे परिपूर्ण है। इसमें सुन्दर सुभाषितों, अभिव्यक्तियों और लोकोक्तियोंका प्रयोग किया गया है। प्रकृति वर्णन, स्त्री-पुरुष वर्णन और युद्ध-वर्णन विशेष रूप से प्रभावशाली हैं।
- छन्द-वैविध्य: ग्रन्थ में पज्झटिका, अलिल्लह, पादाकुलक, मधुभार, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, प्रामाणिका, समानिका, दुवई, दोहा और षट्पदी जैसे अनेक मात्रावृत्त और वर्णवृत्त छन्दोंका सुन्दर प्रयोग किया गया है।
- व्याकरणिक विशेषताएँ: अपभ्रंश भाषाके विकासकी दृष्टिसे ग्रन्थकी भाषा, वर्तनी, प्रत्ययोंका प्रयोग, कारक-विभक्तियाँ और समासोंकी रचना विशेष अध्ययनका विषय है।
- तुलनात्मक अध्ययन: पार्श्वनाथके पूर्वजन्मोंका उत्तरपुराण, महापुराण, त्रिशलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थोंसे तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो विभिन्न परम्पराओंकी मान्यताओंको समझने में सहायक है।
प्रस्तावना (Introduction) के मुख्य बिंदु:
- प्रतियोंका परिचय: ग्रन्थका सम्पादन दो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों (क और ख) के आधार पर किया गया है, जिनमेंसे एक प्रति विक्रमी १५७५ (ई. स. १५१८) की है।
- सम्पादन पद्धति: सम्पादन में दोनों प्रतियोंकी पाठ-भेदता, वर्तनी-संबंधी अनियमितताएँ, तथा व्याकरणिक विशेषताओं को ध्यान में रखा गया है। 13
- कविका परिचय: कवि पद्मकीर्ति, उसकी गुरु-परंपरा और उसके दक्षिण भारतीय होनेके अनुमानका विवेचन।
- काल-निर्णय: प्रशस्तिके आधार पर कवि और ग्रन्थके रचनाकालका विस्तृत विवेचन, जिसमें शक संवत् और विक्रम संवत् के विवादका समाधान किया गया है।
- पार्श्वनाथ और उनके पूर्वभव: पार्श्वनाथके पूर्वजन्मोंकी कथाओंके उद्गम और विकासका अवलोकन, कमठके पुनर्जन्मकी कथाओंका तुलनात्मक अध्ययन, विभिन्न ग्रन्थोंमें प्राप्त पार्श्वनाथके पूर्वजन्मोंका तुलनात्मक विवरण, और उनके पूर्वजन्मोंका तुलनात्मक अध्ययन।
- पार्श्वनाथ के तीर्थंकर भव: माता-पिता, वंश और जन्मस्थानका विवरण, पार्श्व और रविकीर्तिके सम्बन्धका विवेचन, पार्श्वनाथका वैराग्य तथा दीक्षा, दीक्षाकाल, पार्श्वके उपसर्ग, केवलज्ञानकी प्राप्ति, पार्श्वनाथका संघ (गणधर, आर्यिका, श्रावक, श्राविका), पार्श्वनाथ का उपदेश, पार्श्वनाथका निर्वाण, पार्श्वनाथ के तीर्थकी अवधि।
- पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति: महावीरके पूर्व पार्श्वनाथके निर्ग्रन्थ सम्प्रदायके अस्तित्वका प्रमाण, उनके चातुर्याम धर्मका निरूपण।
- जैनतर मतोंका उल्लेख: पृथ्वीकी रचना संबंधी हिन्दू पौराणिक मान्यताका उल्लेख और जैन मान्यताके अनुसार उसका खंडन।
- जैनधर्मका विवेचन: सम्यक्त्वका स्वरूप, श्रावकधर्म (अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत), मुनिधर्म और कर्मसिद्धान्तका विस्तृत विवेचन।
- विश्वके स्वरूपका वर्णन: आकाश, लोकाकाश, मेरु पर्वत, नरक, स्वर्ग, देवोंके भेद, तिर्यग्लोक, जम्बूद्वीप, अढाईद्वीप, कालचक्र, शलाकापुरुषोंका विवरण।
- सामाजिक रूपरेखा: तत्कालीन समाज, राजा, मन्त्री, सेना, शकुनोंपर विश्वास, ज्योतिषशास्त्र, विवाह-प्रथा, स्त्रियोंका जीवन आदि का चित्रण।
- काव्य-गुण: महाकाव्य के लक्षण, प्रकृति वर्णन (सूर्योदय, संध्या, चन्द्रोदय, ऋतु वर्णन), स्त्री-पुरुष वर्णन, युद्ध-वर्णन, रस (शान्त, वीर, करुण आदि) और अलंकार (उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि) का विश्लेषण।
- पा. च. की शब्दावली: अपभ्रंश भाषाकी प्रवृत्तियों, तत्सम, तद्भव और देशी शब्दोंका विश्लेषण, क्रियाओंका प्रयोग, असामान्य स्वर-व्यंजन परिवर्तन, दो समीपवर्ती स्वरोंका एकीकरण, कारकोंका प्रयोग, सर्वनामोंकी कारक रचना, असामान्य कारक प्रयोग, समास और उनके काव्यगुण।
- पा. च. के छन्द: कडवक (आदि, मध्य, अन्त्य भाग), दुवई, मत्ता, दोहा, पज्झटिका, अलिल्लह, पादाकुलक, मधुभार, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, प्रामाणिका, समानिका, गद्य आदि विभिन्न छन्दोंका विश्लेषण और उनका प्रयोग।
- व्याकरण: पा. च. की भाषाकी व्याकरणिक विशेषताएँ, जैसे - स्वरोंका इस्वीकरण, अनुनासिक पदान्त, वर्गानुनासिक, व्यंजन परिवर्तन, दो समीपवर्ती स्वरोंका एकीकरण, असामान्य स्वर-व्यंजन परिवर्तन, कारक-विभक्तियोंका प्रयोग, सर्वनामोंकी कारक रचना, असामान्य कारक प्रयोग, समासोंका प्रयोग, क्रिया-विचार (वर्तमान, भविष्य, आज्ञार्थ, कर्मणि, प्रेरणार्थक, नामधातु, कृदन्त, संयुक्त क्रिया) आदि का विस्तृत विवेचन।
निष्कर्ष
पार्श्वनाथचरित एक उत्कृष्ट महाकाव्य है जो न केवल पार्श्वनाथ के जीवन और उपदेशों का वर्णन करता है, बल्कि उस युगकी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति पर भी प्रकाश डालता है। इसकी काव्यात्मक भाषा, छन्द-वैविध्य, और दार्शनिक-धार्मिक विचारों का समावेश इसे जैन साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है। यह ग्रन्थ अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन के लिए भी एक अमूल्य स्रोत है।