Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 04 Sthanakvasi
Added to library: September 1, 2025

Summary
निशीथसूत्रम् (चतुर्थ भाग) - आगमग्रंथ का सारांश
यह अंश (पुस्तक IV) जैन आगम ग्रंथ "निशीथ सूत्र" के चौथे भाग का है, जो उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि जी महाराज और मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज द्वारा संपादित है। यह पुस्तक जैन आचार-शास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें साधकों के आचरण, नियमों और उनके प्रायश्चित्तों का विस्तृत वर्णन है।
पुस्तक का सार (About the Book):
- महत्व: निशीथ सूत्र, आगम का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। स्थविर श्री विषागचन्द्र महत्तर के भाष्य और जिनदासा महत्तर की चूर्णी इसे अत्यंत मूल्यवान बनाती है। भाष्य समय और स्थान के अनुरूप आचरण के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है, साथ ही तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन पर भी प्रकाश डालता है।
- ज्ञानकोश: निशीथ सूत्र ज्ञान का एक विशाल कोश है, जिसमें प्रायश्चित्तों, नियमों, वर्जनाओं और उनके विधिसम्मत पालन का विस्तृत वर्णन है। 20019
- पुनर्मुद्रण: प्रथम संस्करण की मांग को देखते हुए, विद्वानों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह पुस्तक का पुनर्मुद्रण है।
- सम्पादक: उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि जी महाराज और मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज "कमल"।
- प्रकाशक: अमर पब्लिकेशन्स, वाराणसी।
- संस्करण: 2005 (दूसरे संस्करण के रूप में)।
- विषय: यह चतुर्थ भाग उद्देशिका 16 से 20 तक को कवर करता है।
भाग IV (उद्देशिका 16-20) का सारांश:
यह चतुर्थ भाग जैन भिक्षुओं (निर्ग्रन्थ) और भिक्षुणियों (निर्ग्रन्थियों) के आचरण से संबंधित विशिष्ट नियमों और प्रायश्चित्तों पर केंद्रित है, विशेष रूप से ऐसे परिदृश्यों में जहां बाहरी दुनिया (सागारिक) के प्रभाव या उपस्थिति का सामना करना पड़ता है।
मुख्य विषय और आचरण नियम (Major Themes and Conduct Rules):
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सागारिक शय्या का निषेध (Nishith of Saagarik Shayya - Udhedika 16):
- साधुओं और साध्वियों के लिए सागारिक (गृहस्थियों के साथ) शय्या (बिस्तर) का उपयोग करना वर्जित है।
- सागंरिक पद के विभिन्न निक्षेपों (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव) की व्याख्या की गई है।
- द्रव्य-सागंरिक के स्वरूप, आभूषण, वस्त्र, भोजन, गंध, नाट्य, गीत आदि के संदर्भ में प्रायश्चित्तों का वर्णन है।
- भाव-सागारिका के स्वरूप, दिव्य, मनुष्य और तिर्यंच प्रतिमाओं के संबंध में भी विस्तार से चर्चा की गई है, जिसमें उनके प्रति सेवन, आज्ञाभंग आदि से उत्पन्न दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन है।
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सोदक (जल संयुक्त शय्या) का निषेध (Nishith of Sodak - Udhedika 17):
- जल युक्त शय्या का निषेध किया गया है।
- जल के शीत, उष्ण, प्रासुक (शुद्ध) और अप्रासुक (अशुद्ध) के चार भंगों (भेदों) का वर्णन है।
- उत्सर्ग (सामान्य नियम) और अपवाद (विशिष्ट नियम) के संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है, जिसमें शंका-समाधान भी शामिल है।
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साग्नि (अग्नि सहित) शय्या का निषेध (Nishith of Saagni - Udhedika 18):
- अग्नि के साथ या अग्नि के निकट शय्या का उपयोग करने का निषेध किया गया है।
- साग्नि शय्या के भेदों का वर्णन, तथा उसके सेवन से होने वाले दोषों और प्रायश्चित्तों का विवेचन है।
- इसमें प्रकाश युक्त उपाश्रय (जैसे दीपक) में निवास करने से संबंधित नियमों पर भी प्रकाश डाला गया है।
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सचित्त और सचित्त-प्रतिष्ठित इक्षु का निषेध (Nishith of Sachitta and Sachitta-Pratishthit Ikshu - Udhedika 19):
- जीवित (सचित्त) या जीव-प्रतिष्ठित (जीव से युक्त) गन्ने के सेवन या उसे चबाने का निषेध किया गया है।
- गन्ने के विभिन्न विभागों (जैसे अंतर-इक्षु, खंड-इक्षु आदि) की व्याख्या और उनसे संबंधित प्रायश्चित्तों का वर्णन है।
- वन आदि में यात्रा के दौरान यात्रियों से प्राप्त वस्तुएं लेने के निषेध और अपवादों पर भी चर्चा की गई है।
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काल की दृष्टि से उपसंपदा (Upasampada from the Perspective of Time - Udhedika 20):
- यह उद्देशिका उपसंपदा (दीक्षा ग्रहण) के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित है।
- काल की दृष्टि से उपसंपदा के तीन प्रकार बताए गए हैं (जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट)।
- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि के लिए अन्य गणों में उपसंपदा लेने की स्वीकृति पर चर्चा की गई है।
- सूत्र, अर्थ आदि के ज्ञान के लिए जाने वाली उपसंपदा, उसके अतिचार और उनसे संबंधित प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन है।
- विशेष रूप से, अयोग्य (अपपात्र) को वाचना देने या योग्य को वाचना न देने से संबंधित नियमों और प्रायश्चित्तों पर भी प्रकाश डाला गया है।
सम्पादकीय (Editorial Note):
सम्पादकों ने इस पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताई हैं:
- यह निशीथचूर्णि का चतुर्थ खण्ड है, जो इसे पूर्ण करता है।
- इस वृहद ग्रन्थ का संपादन और प्रकाशन शीघ्रता से पूर्ण होना एक आश्चर्य है।
- लिखित प्रतियाँ अशुद्ध मिलीं और तालपत्र की प्रति उपलब्ध न हो सकी, जिससे संपादन कार्य में कुछ त्रुटियां रह गई हैं, जिसके लिए क्षमा-याचना की गई है।
- विद्वत् जगत में इस संपादन कार्य का आदर हुआ है और कई विश्वविद्यालयों ने इसकी प्रशंसा की है।
- कुछ लोगों द्वारा प्रकाशन के संबंध में की गई आलोचनाओं पर सम्पादकों ने ज्ञान-साधना की शुद्ध दृष्टि को प्राथमिकता देते हुए साहित्यकार का कार्य ज्ञान-साधना करना बताया है, न कि साम्प्रदायिक पक्षपात को।
- निशीथचूर्णि को जैन और भारतीय साहित्य का एक महान ग्रन्थ माना गया है, जिसमें आचार-शास्त्र की गुत्थियों का रहस्योद्घाटन है और जो भारतीय इतिहास तथा लोक-संस्कृति का विश्वकोश है।
- पाठकों से आग्रह किया गया है कि वे अपनी बुद्धि का उपयोग करें और किसी भी ग्रंथ या आचार्य की सभी बातों को अक्षरशः ग्राह्य न समझें, बल्कि विवेक से काम लें।
- मुनि श्री अखिलेशचन्द्र जी के सहयोग का उल्लेख किया गया है।
यह पुस्तक जैन साधकों के जीवन के हर पहलू को सावधानीपूर्वक विनियमित करने का प्रयास करती है, ताकि वे अपने आचरण को शुद्ध रख सकें और मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो सकें।